Hello Poetry
  • Home
  • Privacy policy
  • About Us
  • Contact Us
  • Home
  • English Poems
  • अटल बिहारी वाजपेयी जी
  • अन्य कविताओं
  • कवि बद्रीरारायण जी
  • कुमार विश्वास
  • सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
  • हरिवंशराय बच्चन जी

Wednesday, February 13, 2019

इस पार, उस पार / हरिवंशराय बच्चन - Hindi poems

 Vikas Jain     February 13, 2019     हरिवंशराय बच्चन जी     No comments   

 इस पार, उस पार / हरिवंशराय बच्चन, haribansh rai bacchan poems
इस पार, उस पार / हरिवंशराय बच्चन



इस पार, उस पार / हरिवंशराय बच्चन



इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
यह चाँद उदित होकर नभ में
कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरालहरा यह शाखाएँ
कुछ शोक भुला देती मन का,
कल मुर्झानेवाली कलियाँ
हँसकर कहती हैं मगन रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से
संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले
मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का
उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!



जग में रस की नदियाँ बहती,
रसना दो बूंदें पाती है,
जीवन की झिलमिलसी झाँकी
नयनों के आगे आती है,
स्वरतालमयी वीणा बजती,
मिलती है बस झंकार मुझे,
मेरे सुमनों की गंध कहीं
यह वायु उड़ा ले जाती है;
ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये,
ये साधन भी छिन जाएँगे;
तब मानव की चेतनता का
आधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!



प्याला है पर पी पाएँगे,
है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार नियति ने भेजा है,
असमर्थबना कितना हमको,
कहने वाले, पर कहते है,
हम कर्मों में स्वाधीन सदा,
करने वालों की परवशता
है ज्ञात किसे, जितनी हमको?
कह तो सकते हैं, कहकर ही
कुछ दिल हलका कर लेते हैं,
उस पार अभागे मानव का
अधिकार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!



कुछ भी न किया था जब उसका,
उसने पथ में काँटे बोये,
वे भार दिए धर कंधों पर,
जो रो-रोकर हमने ढोए;
महलों के सपनों के भीतर
जर्जर खँडहर का सत्य भरा,
उर में ऐसी हलचल भर दी,
दो रात न हम सुख से सोए;
अब तो हम अपने जीवन भर
उस क्रूर कठिन को कोस चुके;
उस पार नियति का मानव से
व्यवहार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!



संसृति के जीवन में, सुभगे
ऐसी भी घड़ियाँ आएँगी,
जब दिनकर की तमहर किरणे
तम के अन्दर छिप जाएँगी,
जब निज प्रियतम का शव, रजनी
तम की चादर से ढक देगी,
तब रवि-शशि-पोषित यह पृथ्वी
कितने दिन खैर मनाएगी!
जब इस लंबे-चौड़े जग का
अस्तित्व न रहने पाएगा,
तब हम दोनो का नन्हा-सा
संसार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!



ऐसा चिर पतझड़ आएगा
कोयल न कुहुक फिर पाएगी,
बुलबुल न अंधेरे में गागा
जीवन की ज्योति जगाएगी,
अगणित मृदु-नव पल्लव के स्वर
‘मरमर’ न सुने फिर जाएँगे,
अलि-अवली कलि-दल पर गुंजन
करने के हेतु न आएगी,
जब इतनी रसमय ध्वनियों का
अवसान, प्रिये, हो जाएगा,
तब शुष्क हमारे कंठों का
उद्गार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!



सुन काल प्रबल का गुरु-गर्जन
निर्झरिणी भूलेगी नर्तन,
निर्झर भूलेगा निज ‘टलमल’,
सरिता अपना ‘कलकल’ गायन,
वह गायक-नायक सिन्धु कहीं,
चुप हो छिप जाना चाहेगा,
मुँह खोल खड़े रह जाएँगे
गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण;
संगीत सजीव हुआ जिनमें,
जब मौन वही हो जाएँगे,
तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का
जड़ तार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!



उतरे इन आखों के आगे
जो हार चमेली ने पहने,
वह छीन रहा, देखो, माली,
सुकुमार लताओं के गहने,
दो दिन में खींची जाएगी
ऊषा की साड़ी सिन्दूरी,
पट इन्द्रधनुष का सतरंगा
पाएगा कितने दिन रहने;
जब मूर्तिमती सत्ताओं की
शोभा-सुषमा लुट जाएगी,
तब कवि के कल्पित स्वप्नों का
श्रृंगार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!


दृग देख जहाँ तक पाते हैं,
तम का सागर लहराता है,
फिर भी उस पार खड़ा कोई
हम सब को खींच बुलाता है;
मैं आज चला तुम आओगी
कल, परसों सब संगीसाथी,
दुनिया रोती-धोती रहती,
जिसको जाना है, जाता है;
मेरा तो होता मन डगडग,
तट पर ही के हलकोरों से!
जब मैं एकाकी पहुँचूँगा
मँझधार, न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
  • Share This:  
  •  Facebook
  •  Twitter
  •  Google+
  •  Stumble
  •  Digg
Email ThisBlogThis!Share to XShare to Facebook
Newer Post Older Post Home

0 Comments:

Post a Comment

Amazon.in

Subscribe icon

Latest updates by email

Enter your email address:

Delivered by FeedBurner

Popular Posts

  • String Bass / Adrian Green , poem's of Adrian Green
  • Our Friendship / David Lehman
  • Devils / Alexander Pushkin , Alexander Pushkin Poems

Pages

  • Home
  • Privacy policy
  • Contact us
  • About us

Blog Archive

Featured post

Follow Us

  • Twitter
  • Pinterest
  • Google+
  • Facebook

Search Here

  • Home
  • English poems
  • हरिवंशराय बच्चन जी
  • सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
  • कवि बद्रीरारायण जी
  • अन्य कविताएँ
  • अटल बिहारी वाजपेयी जी

Menu

  • Home
  • Privacy policy
  • About
  • Contact Us

Recent Comments

Profile

My photo
Vikas Jain
View my complete profile

Labels

Adam Lindsay Gordon (5) Adrian Green (3) Ajay Krishna (1) Alan Seeger (5) Aleister Crowley (2) Aleksandr Blok (1) Alexander Pope (1) Alexander Pushkin (2) Allen Ginsberg (1) Amy Levy (1) Amy Lowell (2) Anne Bronte (2) Anne Sexton (2) Ben jonson (2) David Lehman (2) English poems (19) James Tate (1) अखिलेश तिवारी (1) अग्निशेखर (4) अंजना भट्ट (7) अजय कृष्ण (5) अजय पाठक (2) अजित कुमार (2) अज्ञेय (1) अटल बिहारी वाजपेयी जी (12) अदम गोंडवी (1) अन्य कविताओं (4) अम्बर रंजना पाण्डेय (1) अम्बर रंजना पाण्डेय (1) अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध (1) अरुण जैमिनी (2) अल्हड़ बीकानेरी (1) अशोक चक्रधर (1) अशोक वाजपेयी (3) आलोक धन्वा (1) कवि बद्रीरारायण जी (3) काका हाथरसी (3) कुमार विश्वास (4) कुंवर नारायण (1) केदारनाथ सिहं (2) चंदबरदाई (1) दुष्यंत कुमार (1) महादेवी वर्मा (1) मुनव्वर राना (2) मैथिलीशरण गुप्त (1) रामनरेश त्रिपाठी (1) शैल चतुर्वेदी (1) सुभद्रा कुमारी चौहान (1) सूर्यकांत त्रिपाठी निराला (3) हरिओम पंवार (3) हरिवंशराय बच्चन जी (12)

Hello Poetry

Popular Posts

सिन्दूर लगाना ~ अम्बर रंजना पाण्डेय

Devils / Alexander Pushkin , Alexander Pushkin Poems

Copyright © Hello Poetry | Powered by Blogger
Design by Hardeep Asrani | Blogger Theme by NewBloggerThemes.com | Distributed By Gooyaabi Templates